बस्तर का दशहरा सबसे खास और सबसे अलग होता है। इसका राम और रावण से कोई सरोकार नहीं है। यहां न तो रावण का पुतला जलाया जाता है और न ही रामलीला होती है। यहां दशहरा पूरे 75 दिनों तक चलता है। इन 75 दिनों में कई रस्में होती हैं, जिनमें एक प्रमुख रस्म रथ परिचालन की भी है। यह रस्म पिछले 610 सालों से चली आ रही है। कोरोनाकाल में कुछ समय पहले जब पुरी में जगन्नाथ रथ यात्रा पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ब्रेक लगा था, तब लोगों ने सोचा था कि बस्तर दशहरा भी फीका रहेगा।
लेकिन, यहां प्रशासन और बस्तर दशहरा समिति ने बीच का रास्ता निकाला और 610 सालों से चली आ रही परंपरा को जारी रखा। इस परंपरा से आम लोगों को दूर किया गया और लोगों के दर्शन के लिए टेक्नाेलॉजी का सहारा लिया गया। यूट्यूब चैनल, टीवी के माध्यम से लोगों को पूरी प्रक्रिया के लाइव दर्शन करवाए जा रहे हैं और परंपराओं और रस्मों में सिर्फ जरूरी लोगों को हिस्सा लेने दिया जा रहा है।
कोरोना से बचने के लिए प्लानिंग
दशहरे के लिए पूरी प्लानिंग की गई। इसके तहत रथ बनाने वाले से लेकर देवी-देवताओं की पूजा करने वाले की लिस्टिंग की गई। गांवों से सिर्फ उन्हीं लोगों को बुलाया गया, जिनकी भागीदारी रस्मों में जरूरी है। गांव से शहर आने से पहले शहर के आउटर में इन लोगों का कोरोना चेकअप करवाया गया। जो लोग निगेटिव निकले, उन्हें शहर के अंदर एंट्री दी गई और रथ बनाने से लेकर इसे खींचने का काम करवाया गया। एक बार निगेटिव आने के बाद जांच का सिलसिला नहीं रोका गया। हर तीसरे दिन सभी का फिर से कोरोना टेस्ट करवाया जा रहा है। जिन लोगों को इन कामों में लगाया गया है, उन्हें बाकी लोगों से भी अलग रखा जा रहा है।
पूरे इलाके को सैनिटाइज किया रहा है
बस्तर दशहरे की दो प्रमुख रस्में हैं। इनमें फूल रथ का परिचालन और भीतर रैनी और बाहर रैनी रस्म हैं। फूल रथ का परिचालन आश्विन शुक्ल पक्ष द्वितीया से लेकर सप्तमी तिथि तक होता है। इसके बाद भीतर रैनी और बाहर रैनी रस्म में रथ चलता है। पुलिस रथ चलने वाले रूट को सील कर रही है। पूरे इलाके को सैनिटाइज किया रहा है। जिन लोगों को रथ खींचना होता है, उनके हाथों को भी सैनिटाइज किया जाता है। सभी के लिए मास्क पहनना अनिवार्य है।
साल में रथ के आकार में कोई फर्क नहीं पड़ा
बस्तर दशहरा इसलिए भी अनोखा है क्योंकि पिछले 610 साल से दशहरे में चलने वाले रथ के आकार में कोई फर्क ही नहीं आया है। यह लकड़ी का रथ 25 फीट ऊंचा, 18 फीट चौड़ा और 32 फीट लंबा बनाया जाता है। 75 दिनों तक चलने वाला दशहरा हरेली अमावस्या को माचकोट जंगल से लाई गई लकड़ी (ठुरलू खोटला) पर पाटजात्रा रस्म पूरी करने के साथ शुरू होता है। इसमें सभी वर्ग, समुदाय और जाति-जनजातियों के लोग हिस्सा लेते हैं।
इसके बाद बिरिंगपाल गांव के लोग सरहासार भवन में सरई पेड़ की टहनी को स्थापित कर डेरी गड़ाई रस्म पूरी करते हैं। इसके बाद रथ बनाने के लिए जंगलों से लकड़ी लाने का काम शुरू होता है। झारउमरगांव व बेड़ाउमरगांव के गांव वालों को दस दिनों में पारंपरिक औजारों से विशाल रथ तैयार करना होता है। इस पर्व में काछनगादी की पूजा अहम है। रथ निर्माण के बाद पितृ मोक्ष अमावस्या के दिन ही काछनगादी पूजा संपन्न की जाती है। इस पूजा में मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी कराई जाती है।
दूसरे दिन गांव आमाबाल के हलबा समुदाय का एक युवक सीरासार में 9 दिनों की साधना में बिना कुछ खाए बैठ जाता है। इस दौरान हर रोज शाम को दंतेश्वरी मंदिर, सीरासार चौक, जयस्तंभ चौक व मिताली चौक होते हुए रथ की परिक्रमा की जाती है। रथ में माईजी के छत्र को चढ़ाने और उतारने के दौरान बकायदा सशस्त्र सलामी दी जाती है।
इसमें कहीं भी मशीनों का प्रयोग नहीं किया जाता है। पेड़ों की छाल से तैयार रस्सी से ग्रामीण रथ खींचते हैं। इस रस्सी को लाने की जिम्मेदारी पोटानार क्षेत्र के ग्रामीणों पर होती है। पर्व के दौरान हर रस्म में बकरा, मछली व कबूतर की बलि दी जाती है। वहीं अश्विन अष्टमी को निशाजात्रा रस्म में कम से कम 6 बकरों की बलि आधी रात को दी जाती है। इसमें पुजारी, भक्तों के साथ राजपरिवार सदस्यों की मौजूदगी होती है।
रस्म में देवी-देवताओं को चढ़ाने वाले 16 कांवड़ भोग प्रसाद को तोकापाल के राजपुरोहित तैयार करते हैं। जिसे दंतेश्वरी मंदिर के समीप से जात्रा स्थल तक कावड़ में पहुंचाया जाता है। निशाजात्रा का दशहरा के दौरान विशेष महत्व हैं।
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