15 साल पहले भाजपा से बैर के चलते रामविलास ने नीतीश को सीएम नहीं बनने दिया, अब बेटे चिराग बोले, 'नीतीश तेरी खैर नहीं

 

मोदी से कोई बैर नहीं, नीतीश तेरी खैर नहीं। आजकल बिहार की राजनीति में इसकी चर्चा खूब हो रही है। शायद, ऐसा पहली बार हो रहा है जब कोई पार्टी गठबंधन से अलग होकर भी उसी गठबंधन की एक पार्टी को खुलकर सपोर्ट कर रही है। दरअसल, लोजपा ने इस बार एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ने का फैसला किया है। वह जदयू के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारेगी, लेकिन भाजपा के खिलाफ नहीं।

लोजपा सुप्रीमो चिराग पासवान ने कहा है कि इस बार बिहार में भाजपा और लोजपा की सरकार बनेगी, उन्हें नीतीश कुमार का नेतृत्व पसंद नहीं है। लोजपा के इस फैसले को लेकर सियासी गलियारों में कयासबाजी शुरू हो गई है। कोई इसे भाजपा का माइंड गेम बता रहा है तो कोई लोजपा के अस्तित्व की लड़ाई। लेकिन, इससे हटकर भी एक कहानी है जिसकी नींव आज से करीब 15 साल पहले रखी गई थी।

दरअसल 70 के दशक में बिहार के तीन युवा नेता लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और राम विलास पासवान राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर उभरे थे। तीनों दोस्त भी थे, तीनों की पॉलिटिकल फ्रेंडशिप की गाड़ी आगे भी बढ़ी लेकिन, रफ्तार पकड़ती उससे पहले ही ब्रेक लग गया। 1994 में नीतीश ने जनता दल से अलग होकर समता पार्टी बना ली तो 1997-98 में लालू और पासवान के रास्ते अलग हो गए।

तस्वीर साल 2000 की है। तब नीतीश और राम विलास साथ मिलकर चुनाव लड़े थे।

2000 के विधानसभा चुनाव में नीतीश और पासवान ने साथ मिलकर लालू का मुकाबला किया, लेकिन कुछ खास हाथ नहीं लगा। जैसे तैसे राज्यपाल की कृपा से नीतीश मुख्यमंत्री तो बन गए, लेकिन 7 दिन के भीतर ही उन्हें इस्तीफा देना। और राज्य में फिर से राजद की सरकार बनी। इसके बाद नवंबर 2000 में पासवान ने लोजपा नाम से खुद की पार्टी बनाई। 2002 में गुजरात दंगा हुआ तो पासवान एनडीए से अलग हो गए।

2005 विधानसभा चुनाव से पहले लालू प्रसाद यादव को घेरने की मोर्चाबंदी हो रही थी। भाजपा और जदयू गठबंधन तो मैदान में थे ही, उधर नई नवेली लोजपा भी राजद को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी। वजह थी दलित- मुसलमानों का वोट बैंक और मुख्यमंत्री की कुर्सी।

नीतीश कुमार ने राम विलास पासवान को साथ मिलकर चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया लेकिन शर्त रख दी कि सीएम वही बनेंगे। पासवान मान तो गए लेकिन उन्होंने भी एक शर्त रख दी कि आपको भाजपा का साथ छोड़ना होगा, जो नीतीश को नागवार गुजरा और गठबंधन नहीं हो पाया।

फरवरी 2005 में चुनाव हुए। लालू कांग्रेस के साथ, नीतीश भाजपा के साथ और राम विलास पासवान अकेले चुनावी मैदान में उतरे। जब चुनाव के नतीजे घोषित हुए तो किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला लेकिन, सत्ता की चाबी रह गई राम विलास पासवान के पास। संपर्क लालू ने भी किया और नीतीश भी बार-बार गुजारिश करते रहे, लेकिन पासवान ने पेंच फंसा दिया। न खुद सीएम बने न किसी को बनने दिया। आखिरकार विधानसभा भंग हो गई और राष्ट्रपति शासन लग गया।

6 महीने बाद अक्टूबर 2005 में चुनाव हुए। लालू, नीतीश और पासवान तीनों यार फिर से अलग-अलग लड़े, लेकिन इस बार बिहार की जनता ने क्लियर कट मेजोरिटी नीतीश भाजपा गठबंधन की झोली में डाल दी थी।पासवान और लालू के पास लेकिन किंतु परंतु के सिवा कुछ खास बचा नहीं था, पासवान 203 सीटों पर लड़ने के बाद भी 29 से घटकर महज 10 सीटों पर सिमट कर रह गए।

मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार ने लोजपा के दलित वोट बैंक में सेंधमारी शुरू कर दी। बिहार में करीब 16 फीसदी दलित हैं, जिनमें 4-5 फीसदी पासवान जाति के हैं। नीतीश ने बिहार के 22 दलित जातियों में से 21 को महादलित में कन्वर्ट कर दिया। अब बिहार में सिर्फ पासवान जाति ही दलित रह गई।

वोट बैंक की बानगी देखिए कि 2015 में जब जीतन राम मांझी ने पासवान जाति को महादलित में जोड़ा तो नीतीश ने वापस सीएम बनते ही फैसले को पलट दिया। हालांकि, नीतीश ने 2018 में पासवान जाति को भी महादलित कैटेगरी में जोड़ दिया।

जिन जातियों को नीतीश ने महादलित में जोड़ा था वो लोजपा की झोली से निकलकर नीतीश के वोट बैंक में शिफ्ट हो गईं। राम विलास और उनकी पार्टी दलितों के नाम पर बस पासवान जाति की पार्टी बनकर रह गई। इसका असर उसके बाद के हुए चुनावों में भी दिखा। लोजपा का ग्राफ दिन पर दिन गिरता गया। 2010 में लोजपा को जहां तीन सीटें मिलीं, वहीं 2015 में महज दो सीटों से ही संतोष करना पड़ा।

बिहार में 243 सीटों में से 38 सीटें रिजर्व हैं। 2015 के विधानसभा चुनाव में 14 सीटें राजद को, 10 जदयू और पांच-पांच सीटें कांग्रेस और भाजपा को मिली। लोजपा के खाते में एक भी सीट नहीं गई।

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