'दो सौ रुपए रोज कमाता हूं, बच्चे को फोन दिलाऊंगा तो खिलाऊंगा क्या', मुंबई से लेकर छोटे से गांव तक एक जैसी कहानियां

 

'मैं दिनभर दिहाड़ी करके दो सौ रुपए कमा पाता हूं। उसमें भी काम कभी मिलता है तो कभी नहीं मिलता। अभी सोयाबीन का काम चल रहा है, इसलिए दिहाड़ी मिल रही है। महीने का पांच-छ हजार रुपए बमुश्किल कमा पाता हूं। अब इसमें परिवार का पेट भरूं कि बच्चे को स्मार्टफोन दिलवाऊं'। यह पीड़ा है मप्र के धार जिले के चंदोदिया गांव में रहने वाले सोहन मुनिया की। जब हम उनसे बात कर रहे थे, तब वो खेत में ही काम कर रहे थे। सुबह 9 बजे दिहाड़ी के लिए निकल जाते हैं। शाम 7 बजे तक घर पहुंचते हैं। आपके घर में स्मार्टफोन नहीं है तो बच्चा पढ़ाई कैसे कर रहा है? ये पूछने पर बोले, किताबें हैं, उससे वो खुद ही पढ़ता रहता है। बीच-बीच में गांव में सर लोग आते हैं, वो बच्चों को कहीं इकट्ठा करके पढ़ाते हैं। अब स्मार्टफोन तो गांव में गिने-चुने बच्चों के पास ही है। इसलिए ऑनलाइन तो कोई पढ़ नहीं पा रहा।

यह सिर्फ एक बानगी है। लॉकडाउन के बाद से ऑनलाइन पढ़ाई तो करवाई जा रही है लेकिन गरीबों के बच्चों को यह भी हासिल नहीं हो पा रही और यह हालात सिर्फ गांव में ही नहीं हैं बल्कि मुंबई जैसे शहर में भी हैं। रेंसी लियोन 7वीं क्लास की स्टूडेंट हैं। वो धारावी में रहती हैं। वही धारावी जो एशिया की सबसे बड़ा स्लम कही जाती है। रेंसी को एक ट्रस्ट के जरिए वडाला के औक्सिलियम कॉन्वेंट हाईस्कूल में एडमिशन मिल गया था, लेकिन जब से ऑनलाइन पढ़ाई शुरू हुई है, तब से उन्हें पढ़ाई में भयंकर दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि उनके पास स्मार्टफोन नहीं है।

धारावी में इस कमरे में रहती हैं रेंसी। उनकी मां कहती हैं, अभी तो किराया भी नहीं दे पा रहे, ऐसे में स्मार्टफोन कैसे खरीदें।

लॉकडाउन के पहले तक महिमा साफ-सफाई का काम करने इधर-उधर जाया करती थीं। इसी से होने वाली कमाई से वो किराया भरती थीं और अपनी बच्ची की परवरिश कर रहीं थीं, लेकिन लॉकडाउन के बाद से उनका काम छिन गया तो कमाई बंद हो गई। महिमा तो अभी अपने घर का किराया ही नहीं दे पा रहीं। कहती हैं, लोग जो राशन बांटते हैं उससे महीनेभर खाते हैं, अब बेटी को स्मार्टफोन कैसे दिलवाऊं? फिर रेंसी पढ़ाई कैसे कर रही है? इस पर रेंसी ने बताया कि, वो अपनी एक फ्रेंड के घर जाती है पढ़ने। उसके पास स्मार्टफोन है। वॉट्सऐप ग्रुप में जो कंटेंट आता है, वो नोट कर लेती है। सुबह साढ़े सात बजे से दोपहर बारह बजे तक दोस्त के घर ही रहती है। रेंसी और अनिल की ही तरह बीजलपुर की शर्मीली भी स्मार्टफोन न होने के चलते पढ़ाई नहीं कर पा रही। शर्मीली के पिता भंवर सिंह कहते हैं, हमारे गांव में जो स्कूल है, उसके टीचर आते रहते हैं, वो बच्चों को दूर-दूर बैठाकर पढ़ाते हैं। गांव में बहुत कम बच्चों के पास स्मार्टफोन है इसलिए उससे तो कम ही पढ़ाई कर पा रहे हैं।

धार के सहायक परियोजना समन्वयक कमल सिंह ठाकुर ने कहा, भोपाल से रोज ऑनलाइन पढ़ाई का कंटेंट वॉट्सऐप ग्रुप में आता है। इसे ही शिक्षकों के जरिए बच्चों तक सर्कुलेट किया जाता है लेकिन ये सच है कि गांव में अधिकांश बच्चों के पास स्मार्टफोन ही नहीं है, ऐसे में वो इसका फायदा नहीं उठा पा रहे। हालांकि हमारा स्टाफ एक-एक, दो-दो दिन में गांव में पहुंचकर बच्चों की पढ़ाई में मदद कर रहा है। कई बार किसी बच्चे के पास फोन होता है तो उसे कहते हैं कि ग्रुप में चार-पांच बच्चे एकसाथ पढ़ लो, ताकि सभी को स्टडी मटेरियल मिल जाए।

बच्चों के पास स्मार्टफोन न होने की पुष्टि एनसीईआरटी का सर्वे भी करता है। इसके मुताबिक, करीब 27 फीसदी बच्चे ऐसे हैं, जिनके पास न स्मार्टफोन है, न लैपटॉप। वहीं 28 फीसदी स्टूडेंट्स और पेरेंट्स ने बिजली को ऑनलाइन पढ़ाई में सबसे बड़ी बाधा बताया। इस सर्वे में 34 हजार लोग शामिल थे। जिनमें पैरेंट्स, टीचर्स और प्रिंसिपल की राय भी ली गई थी। वहीं चाइल्ड राइट्स के लिए काम करने वाले एनजीओ स्माइल फाउंडेशन ने 42, 831 स्टूडेंट्स के बीच सर्वे करवाया था, इसमें पता चला था कि 56 परसेंट बच्चों के पास पढ़ने के लिए स्मार्टफोन नहीं है।

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