हम चीन के साथ गतिरोध के नौवें महीने में हैं, जो कि मेरे मई के पूर्वानुमान से काफी बाद में है, जिसमें मैंने कहा था कि हमें कैंपेनिंग सीजन, जो नवंबर में होता है, तक रुके रहना होगा। गुजरते समय के साथ इसपर मत भी बदलेंगे। पुनर्विश्लेषण से मुख्य मुद्दे पर नए विचार आएंगे कि क्या आकलन के लिए विवाद की स्थिति बनी रहे और यह चीन की मंशा है कि भारत-चीन के अच्छे से विकसित होते संबंध सैन्य टकराव में बदल जाएं। इससे हमें लगातार जवाब मिलेंगे, जिससे सामना करने की रणनीति बनाने में मदद मिलेगी।
और भी देश हैं जिनका चीन के साथ झगड़ा है, लेकिन ऐसा सैन्य दबाव का प्रयास कहीं नहीं किया गया, जैसा भारत के साथ हुआ। चीन ने उन देशों के साथ वुल्फ वॉरियर डिप्लोमेसी अपनाई, जो कि कूटनीति की जंगी शैली है, जिसमें आमना-सामना करने की बस बातें की जाती हैं। हालांकि भारत पर इसे बहुत नहीं अपनाया गया।
लद्दाख क्षेत्र में पर्याप्त संख्या में सैनिक भेजकर चीन ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी है, जो आपसी झड़प के जाने-पहचाने इलाकों में तो प्रभावी हो सकती है, लेकिन इसे किसी बड़े इलाके पर कब्जे के लिए अभियान चलाने में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। उसने झड़प को पूर्वी लद्दाख के सबसे दक्षिणी इलाके चुमार और डेमचोक इलाकों में भी नहीं बढ़ाया।
महामारी के समय संभवतया चीन का इरादा इस इलाके में कठिनाई के स्तर का भी पता लगाना था, क्योंकि भारत के लिए ऐसा करने में कठिनाई के साथ ही खर्च का स्तर भी बहुत अधिक है। वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के पार का इलाका पठार जैसा होने से चीनी सैनिकों के समक्ष दिक्कत कहीं कम थी। इससे साफ है कि चीन का इरादा संकट उत्पन्न करना था, न कि अपने दावे के मुताबिक क्षेत्र पर कब्जा करना। वह एलएसी पर जटिलता पैदा करने के साथ ही रणनीतिक फैसले करते समय भारत के दिमाग में संवेदनशीलता का मनोविकार पैदा करना चाहता था।
मेरे अनुमान से इसकी सबसे बड़ी वजह भारत के उस विश्वास को डिगाना हो सकता है, जो उसने 2016 के बाद हासिल किया है। इसके स्पष्ट संकेत नियंत्रण रेखा के पार किए गए ऑपरेशन, डोकलाम में विरोध, जम्मू-कश्मीर का विशेषाधिकार खत्म करना और भारत की सेनाओं को एक संयुक्त कमान के अधीन लाने और उनका संयुक्त ऑपरेशन के आधुनिक तरीकों के समकालीन बनाने से मिलते हैं।
बड़ी शक्तियों के साथ संबंधों को बनाने के साथ ही इन बहुपक्षीय संबंधों में आत्मविश्वास के साथ संतुलन बनाने को चीन के थिंक टैंक ने खतरनाक माना और बढ़ते आत्मविश्वास को भारत की अस्वीकार्य महत्वाकाक्षा के ट्रेंड के रूप में देखा। इसलिए चीनियों की तैनाती की नीति भारत को रणनीतिक किनारे पर रखने और उससे आगे की स्थिति का अनुमान न लगाने देने के साथ ही संबंधों को खत्म करने या बनाए रखने की अनिच्छा से उसके आत्मविश्वास को कम करने के लिए है।
प्रधानमंत्री की इस बात के लिए आलोचना होती है कि वे हमलावर के रूप में चीन का नाम नहीं लेते हैं। मैंने एक स्टेट्समैन के तौर पर प्रधानमंत्री के रुख का समर्थन किया है, धरातल पर तो भारत व चीन के बीच गतिरोध के हालात हैं, युद्ध की स्थिति नहीं। लेकिन हमें भीतरी तैयारी करते रहना चाहिए। चीन अब हमारे खिलाफ निम्न स्तर के सायबर हमले कर रहा है।
सुरक्षा एजेंसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने एक फिशिंग अभियान के प्रति चेताया भी है। जिसमें सरकारी मदद का वितरण देखने वाली एजेंसियों, विभागों और व्यापार एसोसिएशन का नकली चोला ओढ़ा जा सकता है। इस अभियान का दायरा वैक्सीन खरीद, भंडारण और वितरण को बाधित करने के लिए भी बढ़ाया जा सकता है। इसका देशभर में असर होगा और यह भारत के स्वास्थ्य सेक्टर को खतरे में कर देगा।
चीन सर्दी में लद्दाख में कोई धरती को हिलाने वाला काम शायद ही करेगा। उसका इरादा महामारी खत्म होने और अमेरिका में बाइडेन प्रशासन के सत्ता में आने का इंतजार दिखता है। उसे अमेरिका से अब कुछ शांत व व्यापार पर कम प्रतिरोधी चीन नीति और दुनिया में बदले क्रम के लिए स्थितियां बनने की उम्मीद है। इसीलिए वह भारत के साथ अपने संबधों को आगे बढ़ाने की उम्मीद करेगा। भारत को इससे दबाव में आने की जरूरत नहीं है, क्योंकि भविष्य की बागडोर चीन के हाथ में नहीं है और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर ही शी जिनपिंग को समर्थन के मुद्दे पर आंतरिक मतभेदों के संकेत हैं।
भारत की अमेरिका के साथ कूटनीतिक साझीदारी, क्वाड एजेंडे को प्रोत्साहन और भारत द्वारा स्थापित ढेरों संबंधों ने भारत को चीन से संतुलन बनाए रखने के समान उपाय दे दिए हैं। लद्दाख में तो युद्ध नहीं होगा, लेकिन अन्य क्षेत्रों में जहां पर चीन संवेदनशीलता स्पष्ट है और उसके लिए सब ठीक-ठाक नहीं है। मैं आखिर में जोड़ना चाहूंगा कि अमेरिका ने भारत के खिलाफ चीनी हमले से निपटने के लिए 740 अरब डॉलर का पॉलिसी बिल पारित किया है। बाइडेन प्रशासन के भी इसी नीति का पालन करने की उम्मीद है। यह भारत के लिए बढ़त है।
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