सच यही है कि देवी की तरह पूजी जाती लड़कियां मर्दाना धरती पर उनकी मामूली नुमाइंदा तक नहीं बन पाई हैं https://ift.tt/2JpinPK

हाल ही में मध्यप्रदेश सरकार ने तमाम सरकारी कामों की शुरुआत बेटियों की पूजा से करने को कहा है। यानी आने वाले दिनों में सरकारी महकमे बेटियों के पांव धोते और उन्हें तिलक लगाते दिख जाएंगे। यह एक तरह का सरकारिया एलान है कि भई हमने तो स्त्री को शक्ति मान लिया। देखो, उसकी पूजा भी कर दी। अब तो खुश!

लेकिन क्या इससे कुछ भी बदलने वाला है? क्या पूजा होते ही लड़कियों के आसपास एक सुनहरा घेरा बन जाएगा, जो सड़क से लेकर दफ्तर तक ताक में बैठे मर्दों को रोकेगा! घूरो मत, छेड़ो मत, हाथ न लगाओ, फलां लड़की कल-परसों या बीते साल पूजी गई थी। न! ये सब कुछ नहीं होगा, बल्कि होगा ये कि माथे पर तिलक की जगह जख्म ले लेगा,आंखों में चमक की जगह आंसू होंगे और जिन हाथों ने पांव धोए थे, उनमें से ही कोई हाथ उसके वजूद को रौंद रहा होगा।

कुल मिलाकर सच यही है कि देवी की तरह पूजी जाती लड़कियां मर्दाना धरती पर उनकी मामूली नुमाइंदा तक नहीं बन पाई हैं। उन्हें देवी, माता, रूहानी ताकत से भरपूर मानने वाला देश उन पर ही हिंसा के नए कीर्तिमान बना रहा है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) का 2019 का डेटा बताता है कि 4 लाख से ज्यादा औरतों ने सालभर में किसी न किसी किस्म की गंभीर हिंसा की शिकायत दर्ज करवाई। ये आंकड़ा 2018 से 7.3%ज्यादा रहा।

ये तो हुई उन मामलों की बात जो पुलिस की फाइलों में दर्ज हो पाते हैं। कितने मामले किसी रिकॉर्ड में आने से रह जाते हैं, यह समझने के लिए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS) ने पुलिस के साथ मिलकर एक सर्वे कराया। नतीजों ने अधिकारियों को चौंका दिया। इसके मुताबिक यौन शोषण के लगभग 99.1% मामले सामने ही नहीं आ पाते। इनमें से ज्यादातर मामले कम उम्र लड़कियों के साथ उन्हीं के रिश्तेदारों से जुड़े होते हैं। तब देवी को किसी मामा, किसी चाचा-ताऊ या पिता की इज्जत के हवाले से चुप करा दिया जाता है।

कोरोना महामारी के दौरान देवियां की पूजा और तबीयत से हो रही है। ज्यादातर दफ्तर बंद हैं, कामकाज घर से हो रहे हैं। अब जब बीवी सारा दिन आंखों के सामने डोलेगी, तो शौहर बेचारा आखिर करे भी क्या! तो बेचारों ने खलिहर बीवी के साथ मारपीट शुरू कर दी। NCRB के मुताबिक, घरों में किसी भी तरह की हिंसा सहने वाली लगभग 86% औरतें कभी मुंह नहीं खोलतीं। यौन हिंसा, मारपीट या तानों की सुई हद से ज्यादा कोंचने पर कभी-कभार रो-भर लेती हैं।

कई वेबसाइट्स खंगाली। सब की सब इस डेटा पर आंखें चौकोर किए दिखीं। इतनी हिंसा! इतनी चुप्पी! लेकिन मुझे या बहुतेरी औरतों को इससे कोई हैरानी नहीं होगी। हम सारी औरतें इसी माहौल में पली-बढ़ी हैं। हरेक के साथ मर्दाना हिंसा का एक पूरा चैप्टर साथ चलता है। सड़क पर चलते हुए, दफ्तर में की पैड पर अंगुलियां टकटकाते या फिर शॉपिंग मॉल में कपड़ों का ट्रायल लेते हुए ये चैप्टर दिमाग से किसी जोंक की तरह चिपका रहता है।कोई सुई होती है, तो हर घड़ी टिकटिकाती है कि बचो,अब अंधेरा हो गया। बचो, यहां सुनसान है। बचो, कि तुम औरत हो।

अब लौटते हैं देवियों से औरतों की तुलना पर

औरतों को दुनियावी मोह-राग से परे देवी बनाने का चलन पुरुषों के लिए हरदम ही काफी काम का साबित होता रहा। सबसे जबर्दस्त टोटका तो औरत को त्याग की देवी बनाना है। इस देवी का कोई चेहरा नहीं है। न ही ये फूल-धान-पूजा मांगती है। तो होता ये है कि देवी के इस ओहदे पर एक-दो नहीं, बल्कि सारी औरतों को बैठाया जाता है। इसका कोई अंत या शुरुआत भी नहीं। पांच साल की बच्ची को अपनी फेवरेट चॉकलेट छह साल के भाई के लिए छोड़ने को कहा जाता है। ज्यों ही बच्ची ने चॉकलेट परे की, उसे ममता की देवी बना दिया जाता है। ये प्रक्रिया चलती रहती है। बीवी प्रमोशन के समय दफ्तर से छुट्टी लेती है, ताकि पति के दोस्तों के लिए शानदार दावत पकाए। बच्चे के लिए मांएं नौकरी ऐसे छोड़ती हैं, जैसे कोई बुरी आदत छोड़ता हो।

कोई 'शातिर' औरत देवी की बजाए इंसान होना चुने, तो उसकी खैर नहीं। पकड़-धकड़कर किसी न किसी देवी की कुर्सी पर बांध ही दिया जाता है। औरत अगर तब भी छूट निकले, तो दनादन उसके चरित्र का स्तुतिगान शुरू हो जाएगा। यानी बनना है तो सीधे देवी बनो या फिर हमें तुमको वेश्या बनाते देर नहीं लगेगी। बचपन में पांव पूजन के बाद से कब्र तक औरत अपना इंसान होना भूली रहे, इसके लिए तमाम जतन होते हैं।

एक बड़ा ही मजेदार वाकया याद आता है। बेटी के जन्म के समय हालात कुछ ऐसे बने कि मेरी इमरजेंसी सर्जरी करनी पड़ी। लोकल एनेस्थीसिया दिया गया था तो मैं आराम से डॉक्टरों से हंस-बोल रही थी। बस आंखें ढंकी हुई थीं। सर्जरी पूरी हुई। बच्चे के रोने की आवाज सुनते ही रोके हुए आंसू एकदम से ढुलकने लगे कि तभी डॉक्टर की आवाज आई- 'रोओ मत, लक्ष्मी आई है'... वो मेरी फेवरेट डॉक्टर थी। पास आकर लगभग फुसफुसाते हुए ही बोली- 'अगली बार फिर कोशिश करना'। आंसुओं के बीच ही मैं जोरों से हंस पड़ी। जी में आया कि आंखों से पट्टी हटाकर डॉक्टर की तसल्ली को दोनों हाथों से पोंछ दूं। मुझे लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा या अन्नपूर्णा कुछ नहीं चाहिए। मुझे जो चाहिए था, वो मिल चुका। वो देश का नामी अस्पताल था। और मेरी डॉक्टर के नाम इंटरनेट पर फाइव स्टार हैं। लेकिन, इससे फर्क ही क्या पड़ता है!

पुराने समय में जब अल्ट्रासाउंड नहीं था, तब बच्ची के जन्म के साथ ही उसे अफीम चटा दी जाती। एक और तरीका था, जिसमें दूध की परात में बच्ची का सिर डुबोकर तब तक रखा जाता, तब तक कि हिलने या रोने जैसे मासूम प्रतिरोध भी रुक जाएं। राजस्थान में एक क्रूरतम तरीके के बारे में सुना था कि वहां चारपाई के पाये के नीचे बच्ची का सिर दबा दिया जाता था। एक आवाज में बच्ची की मौत हो जाए, तो अगली संतान लड़का होना तय है। इस परंपरा को मानने वाले लोग परिवार-समेत चारपाई पर बैठ जाते।

अल्ट्रासाउंड आया तो हत्या का बोझ अपने सिर लेने की जरूरत खत्म हो गई। अब सरकारें सख्त हैं। और फिर हम पर भी सभ्य दिखने का दबाव है। लिहाजा अल्ट्रासाउंड के समय सिले हुए मुंह बच्ची का चेहरा देखते हुए खुल पड़ते हैं। बधाइयों के बहाने तसल्ली दी जाती है कि भाईसाहब, रोओ मत, लक्ष्मी आई है। कोई भूले से भी नहीं कहता कि बिटिया की बधाई हो।

देवी के नाम पर एक-दूसरे को सांत्वना देते लोग तभी पक्का कर लेते हैं कि बेटी आ तो गई, लेकिन इसे इंसान नहीं, देवी ही बनाए रखना है। बस, गर्भ से बाहर निकली ये बच्ची लक्ष्मी से होते हुए अन्नपूर्णा और जाने क्या-क्या होती रहती है। क्यों नहीं, लड़के के जन्म पर कोई कहता कि बधाई हो फलां देवता आए हैं। नहीं, क्योंकि लड़का होना अपने-आप में एक खूबी है, तो इसे किसी देवता के नाम से ढंकने की क्या जरूरत!

ये जरूरत तो लड़कियों के लिए है। दशकों से यही चला आ रहा है और शायद सदियों तक चले। ये बदलेगा, जब हम खुद को देवी बनाए जाने से इनकार कर दें। हम इंसान हैं। तमाम चोटों, खामियों और खूबियों से भरे हुए। ठीक वैसे ही, जैसे कोई मर्द।



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
The truth is that girls worshiped like Goddesses have not been able to become their nominal representatives on the masculine earth.


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/38AmWiE
Previous Post Next Post