मेरा बेटा ईशान जो कि थोड़ा मलयाली, कुछ बंगाली और कुछ कश्मीरी भी है, वह सिंगापुर में पैदा हुआ और 6 साल की उम्र से ही अमेरिका में पला-बढ़ा। अमेरिका में जन्मी महिला से वहीं शादी की और अपना पूरा वयस्क जीवन अमेरिका के प्रमुख मीडिया हाउस में काम करते हुए बिताया।
जब उसने 2020 में यह घोषणा की कि उसने अमेरिकी नागरिकता ले ली है, तो एक पिता होने के नाते जिसने उससे बिल्कुल उलट अपने पूर्वजों की धरती पर वापस लौटने का फैसला किया था, मुझे उसके फैसले से गहरी आपत्ति थी। अपने भारतीय पासपोर्ट को त्यागने का फैसला एक तरह से धोखा था।
इसके बाद भी मेरे मन में विचार आया और अहसास हुआ कि ईशान की पीढ़ी के लोगों के लिए यह कितनी हास्यास्पद बात है, जो भले ही दिल से अपने पूर्वजों की धरती से जुड़े हुए हों, पर वे अपने लिए सही हालात या परिस्थितियों को पहचानने के प्रति ज्यादा सजग होते हैं, जहां वे सफल हो सकें।
मेरे ज़ाहिर गुस्से पर ईशान ने कहा कि उसे भारतीय पासपोर्ट रखने में भी खुशी होगी, पर अगर भारत दोहरी नागरिकता की अनुमति दे तब। पर अमेरिका के विपरीत भारत ऐसा नहीं करता है, यहां राष्ट्रीय निष्ठा अविभाज्य है।
प्रवासी भारतीय (एनआरआई) लंबे समय से इस बात पर तर्क कर रहे हैं कि यह बिल्कुल अन्यायपूर्ण फैसला है, क्योंकि दूसरे देशों की नागरिकता उनके लिए कई बार सुविधा का मामला बन जाता है और कई बार जरूरत भी, लेकिन इसके कारण भारतीय नागरिकता छूट जाना उनके देश के प्रति विश्वास और गर्व पर गहरी चोट करता है।
पर भारत अपने अप्रवासी नागरिकों को एक प्रमाण पत्र प्रदान करता है, कपटभरा यह प्रमाण पत्र ओवरसीज़ सिटीजन ऑफ इंडिया कहलाता है, जो कि नागरिकता बिल्कुल नहीं है। यह सिर्फ आजीवन वीजा मात्र है, जो कि दूसरे अन्य वीजा की तरह ही निलंबित या निरस्त किया जा सकता है, जैसे कि अभी 2020 में कोरोना महामारी के चलते हुआ है।
प्रवासी रहवासियों (डायस्पोरा) में कई लोग तर्क देते हैं कि व्यापक और नियमित रूप से हो रहे पलायन वाली आज की दुनिया में उस व्यक्ति का पासपोर्ट किसी की मौलिक समानताओं या देशभक्ति का सुबूत नहीं है। हालांकि हर किसी का मकसद पूरी तरह आदर्शवादी भी नहीं, अधिकांश प्रवासी भारतीय जो कि दोहरी नागरिकता की पैरवी करते हैं, वे व्यावहारिक लाभ लेने के बजाय अपनी भावनात्मक पहचान के लिए ऐसा करते हैं।
असल में देखा जाए तो प्रवासी रहवासियों के प्रति भारतीय नीति अच्छा इरादा नहीं रखती। उन्हें ऐसी अपमानजनक स्थिति में खड़ा कर देती है कि या तो वे अपना भारतीय पासपोर्ट दोबारा हासिल करें, इससे लगता है कि वे अपने मेजबान देश के साथ अन्याय कर रहे हैं या दूसरा पासपोर्ट चुनने की स्थिति में अपनी मातृभूमि से खुद को वंचित रखें।
जहां तक इस दिशा में किए अपने प्रयासों को मैं जानता हूं, कह सकता हूं कि प्रवासी रहवासियों को दोहरी नागरिकता देने के विचार के प्रति भी भारतीय सरकार में कोई इच्छा नहीं दिखती। ऐसे में इतने सारे लोग, जो कि भारतीय बने रहना पसंद करेंगे, दूसरे मुल्कों की राष्ट्रीयता और वहां की प्रतिबद्धताओं को बचाए रखने के लिए अपने ज़ाहिर और देशभक्ति से भरे पहले विकल्प को छोड़ने के अलावा उनके पास और कोई रास्ता नहीं बचेगा।
इस दुविधा के बारे में मैंने अपनी नई किताब ‘द बैटल ऑफ बिलॉन्गिंग’ में लिखा है। प्रवासी रहवासियों में जिन्होंने अपना भारतीय पासपोर्ट नहीं छोड़ा है, वे कुछ और भी चाहते हैं। मताधिकार की मांग तेजी से मुखर हो रही है।विदेशों में काम कर रहे पूरी तरह भारतीय नागरिकों, एनआरआई ने यह बात उठाई है कि जब उन्हें देश के विकास में अपना योगदान देने के लिए आमंत्रित किया जाता है, तो मतदाता होने के नाते उन्हें देश की नीति निर्धारण को प्रभावित करने में किसी भी तरह की भूमिका निभाने की अनुमति क्यों नहीं है।
आधुनिक दुनिया में भारत कुछ ऐसे लोकतंत्र में से है, जहां राष्ट्रीय चुनावों में अनुपस्थित मतदाताओं की परंपरा विकसित नहीं की गई है, परिणामस्वरूप विदेशों में रह रहे नागरिक इस प्रक्रिया से बेदखल हो जाते हैं। 1991 में केरल हाईकाेर्ट ने भारतीय चुनाव कानूनों को चुनौती देती हुई एक याचिका स्वीकार की थी, पर केस आगे नहीं बढ़ा।
सिर्फ वही एनआरआई वोट डाल सकते हैं, जो अपने गृहनगर में बने निर्वाचन क्षेत्र तक यात्रा करके आएं, अधिकांश लोगों के लिए यह विशेषाधिकार पहुंच से बाहर है। अगर एनआरआई नागरिकों को विदेशों से ही वोट डालने का अधिकार मिल जाए, तो कम से कम केरल जैसे राज्य की राजनीति नाटकीय रूप से बदल जाएगी, जहां लाखों मलयाली विदेशों में काम कर रहे हैं और जहां के चुनाव चंद हजार वोटर्स या उससे भी कम से तय होते हैं। लेकिन यह भारतीय नागरिकों को उनके लोकतांत्रिक मताधिकार का प्रयोग करने के अधिकार से वंचित करने का कोई कारण नहीं है। दोहरी नागरिकता तब अगला कदम हो सकता है। (यह लेखक के अपने विचार हैं)
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