आजकल एक नई बहस गर्म है। लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाकर 18 से 21 कर दी जाए। यानी लड़के-लड़के दोनों की शादी इसी उम्र के बाद हो। तरक्कीपसंद लोग गुत्थमगुत्था हैं। कई साहब रोते हैं कि जब पुराना कायदा ही तमीज से लागू न हुआ तो नए की क्या जरूरत। दूसरा तबका मेडिकल साइंस के हवाले से गले की नसें फुलाता है कि 21 की उम्र में मांएं बच्चे को जन्म देते हुए मरेंगी नहीं। एक कमेटी बन चुकी और देर-सवेर कोई सुझाव भी निकल आएगा। कुल मिलाकर हो ये रहा है कि लंगड़े कबूतर का जनाजा खूब धूमधाम से निकल पड़ा है।
क्या नया नियम अपने साथ क्रांति की नई हवा लाएगा कि कागजों पर उतरते ही लड़कियों की तकदीर बदल जाए! सोचा तो पहले भी यही गया था, जब साल 1929 के उस कानून को बदला गया, जो 14 साल की लड़कियों को शादी-लायक कहता था। कानून ने 'सिमरन' को जीने के लिए चार और साल दे दिए। तब क्या हुआ? तब हुआ ये कि मां-बाप छिपकर बिटिया ब्याहने लगे।
लड़की का पहला पीरियड घरवालों के लिए उसकी जवानी की मुनादी हो गया। मान लिया गया कि शरीर से हर महीने बहते खून के साथ लड़की का शरीर और दिमाग हर चुनौती के लिए पक्का हो जाता है। अब वो परिवार संभाल सकती है। स्कूल का बस्ता छोड़ रसोई पका सकती है और मां भी बन सकती है। फिर होने भी यही लगा। किशोरी लड़कियां, जो कुछ रोज पहले अपने पीरियड्स को लेकर हकबकाई हुई थीं, वे प्रेग्नेंट होने लगीं।शिशुजन्म के दौरान कई मर जातीं। कुछ बचतीं तो आगे खप जातीं। जो तब भी बची रहतीं, वे चालीस की होते-होते बीमारियों की उदास पोटली बनकर रह जातीं।
हमारे यहां लड़कियों की शादी 18 से पहले न होने का नियम है लेकिन, हर साल दनादन लड़कियां ब्याही जाती हैं। जैसा कि यूनिसेफ (UNICEF) के आंकड़े बताते हैं, हर साल 18 साल से कम उम्र की लगभग 15 लाख भारतीय लड़कियों की शादी हो जाती है। इसके बाद आते हैं वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन (WHO) के आंकड़े, जो बताते हैं कि बच्चे के जन्म के दौरान हुई कुल मौतों में 25.7 फीसदी मौतें अकेले हमारे देश से हैं।
तो हम आखिर कहां चूक रहे हैं? लड़की की शादी के लिए नियम तो 18 साल का है, लेकिन न मानने वालों के लिए कोई ऐसी सजा नहीं कि रूहें कांप जाएं। घरवाले अपनी चौदह-पंद्रह साला बच्ची को ब्याह दें तो उन्हें दो साल की सजा। वहीं इसी उम्र की लड़की को लेकर अगर लड़का गायब हो जाए तो उसे नाबालिग को फुसलाने और यौन संबंध बनाने के जुर्म में 20 साल की कैद होती है। अजी, यौन संबंध तो तब भी बने, जब लड़की सप्तपदी की रस्म और पाड़भर चौड़ा सिंदूर डालकर गई। बच्ची तो वो तब भी थी, जब पेट में एक और गोद में एक बच्चा चिंघाड़ रहा था। तब दोनों सजाओं में फर्क कैसे! क्या सामाजिक रजामंदी से ब्याही गई लड़की के साथ हुआ यौन अपराध- कुछ कम हो जाता है।
कुछ सालों पहले का हादिया केस याद आता है। केरल की एक हिंदू लड़की ने धर्म बदलकर मुस्लिम युवक को साथी चुना। हाईकोर्ट ने 'भोली-भाली और चंचल दिमाग' वाली युवती की शादी तो रद्द नहीं की, लेकिन उसे माता-पिता की कस्टडी में भेज दिया। लगभग आठ महीने से ज्यादा समय तक 18 साल से ऊपर की वो लड़की नजरबंदी में रही। राजनीतिक और कानूनी झुर्रियां न भी देखें तो एक बात पक्की है कि लड़कियों को कच्चे दिमाग वाला माना जाता है, जिन्हें कोई भी बरगला सकता है। इसलिए ही उन्हें चाबुक की मार से साधा जाता है और शाम ढलते ही खूंटे से बांध दिया जाता है।
वैसे सोचने की बात है कि आखिर लड़के और लड़कियों की शादी की उम्र में अब तक फर्क क्यों रखा गया! मर्जी से साथी चुनने पर लड़की को 'भोला और चंचल दिमाग' कहने वाला समाज यहां एकदम से पैंतरा बदलता है। वो बताता है कि लड़कियां जो हैं, वे लड़कों से जल्दी परिपक्व हो जाती हैं। सीने के उभारों से लड़की को परिपक्व मानने के आदी लोग अपने इस बचकाने तर्क पर इस कदर भरोसा करते हैं कि 12 साल की बच्ची की गोद में दो छोटे भाई-बहन संभालने को डाल दिए जाते हैं, जबकि गली में 15 साल का उसका अपरिपक्व भाई कंचे खेल रहा होता है।
दरअसल- लड़कियां, लड़कों से जल्दी मैच्योर होती हैं- ये कहना लड़कों को गुंजाइश देता है। ये गुंजाइश देता है कि लड़के गलतियां कर सकें और सजा से बचे रहें। लड़कों से तो गलतियां होती रहती हैं...ये छूट देता है कि 45 बरस का मर्द किसी 18 साल की लड़की से प्यार का दावा कर सके। ये इस बात की गुंजाइश भी देता है कि लड़के ताउम्र लड़के बने रह सकें और लड़कियां जन्मते ही औरत बन जाएं। खुद को अपरिपक्व बनाए रखने के ढेरों दूसरे फायदे हैं, परिपक्व लड़कियों को जिनकी भनक तक नहीं। यही वजह है कि जिस उम्र में लड़कों के दांत टूटते हैं, उस उम्र में लड़कियों के ख्वाब टूट चुके होते हैं और वे पत्नी, बहू और मां बनने तक की कतार में लगी दिखती हैं।
अब वापस लौटते हैं उस सवाल पर कि लड़कियों की शादी की उम्र भी बढ़ाकर लड़कों जितनी यानी 21 हो जाए तो क्या होगा! जवाब है- कुछ नहीं होगा. और अगर कुछ होगा तो ये कि बच्चियों की शादी सात परदों पार और सख्ती से होने लगेगी। ये भी हो सकता है कि गर्भ के दौरान लोग बच्चियों को अस्पताल ले जाने से बचें कि कहीं कानूनी नकेल न कस जाए। या फिर थोड़े-बहुत कानून-परायण लोग भी होंगे। वे खमीर उठी इडली की तरह दिनोंदिन जवान होती अपनी लड़की पर झल्लाएंगे। घर से भाग चुकी लड़कियों के हवाले से अपनी लड़की को घर बिठा देंगे। उसे उपले पाथने और पति की सेवा की ट्रेनिंग मिलेगी।
बहुत हुआ तो घर के कोने में परदा डालकर ब्यूटी पार्लर डाल देंगे कि शादी की उम्र तक लड़की की उपयोगिता बनी रहे। कभी जन्मदिन न मना सकी लड़की के इक्कीसवें जन्मदिन का रोज इंतजार होगा और कैलेंडर पर तारीख आते ही फटाफट ब्याह हो जाएगा।
इसका दूसरा काफी हसीन पहलू भी हो सकता है। बराबरी की उम्र में हुआ रिश्ता ज्यादा टिकाऊ, ज्यादा संजीदा हो सकता है। हो सकता है कि नई मिली मियाद में लड़की पढ़कर वो रोशन मीनार बन जाए, जिसके हवाले से गुमनाम घरों के मालिक अपना पता बताया करें, लेकिन इसके लिए कानून नहीं, बल्कि हमें अपने भीतर कुछ बदलना होगा। जहन से ये बात निकालनी होगी कि लड़कियां लड़कों से पहले मैच्योर हो जाती हैं।
दिखाई देने वाले शारीरिक बदलाव मैच्योरिटी का सबूत नहीं, दोनों को ही परिपक्व होने में बराबरी का वक्त लगता है। जबरन जिम्मेदारी डालकर बड़ी कर दी गई बच्ची, उस फल की तरह होती है, जो केमिकल से पक तो जाए लेकिन अपनी सारी तासीर खोकर। वो फल मीठा तो होगा, लेकिन बेमजा होकर। जैसे ही हम लड़कियों पर वक्त से पहले समझदार होने की लगाम हटाएंगे, बहुत कुछ अपने-आप बदलने लगेगा।
और औरतों! 21 साल तक की फुर्सत देख बेटी को गोल रोटी सिखाने में मत जुट पड़ना। उसकी आंखों में गोल दुनिया के ओने-कोने नापने के सपने भरना। उसके कंधों को इतना मजबूत होने देना कि वक्त आए तो वे एक परिवार नहीं, एक पूरी दुनिया संवार सकें। जो साहेबान मर्दों के रूप-गुण बखानने में फिजूलखर्च हो चुके हों, उनके लिए भी एक काम है- इंतजार। वे इंतजार करें क्योंकि सुबह अपने होने के लिए मुर्गे की बांग का रास्ता नहीं देखती। सुबह तो तब भी होगी।
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