36 नए मंत्री, एक भी मुस्लिम नहीं- क्या यह मुसलमानों के साथ 36 का आंकड़ा है?


प्रधानमंत्री के नए मंत्री परिषद विस्तार का सबसे उल्लेखनीय पक्ष यह बताया जा रहा है कि इसमें पिछड़ी जातियों के 27 नेता हैं. यह रिकॉर्ड संख्या है. इसे मंडल की वापसी बताया जा रहा है. इस बात की तारीफ़ की जा रही है कि प्रधानमंत्री ने विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों की नुमाइंदगी का विशेष खयाल रखा है.

लेकिन हैरत की बात यह है कि इस पूरे मंत्री परिषद विस्तार के सबसे त्रासद पक्ष पर कोई बात नहीं कर रहा. प्रधानमंत्री ने 36 नए मंत्री बनाए, लेकिन एक भी मुस्लिम को जगह नहीं दी. क्या मुसलमान इस देश के नागरिक नहीं हैं? इस देश के 20 करोड़ नागरिकों का केंद्र सरकार में कितना प्रतिनिधित्व है? प्रधानमंत्री सहित 78 लोगों की मंत्री परिषद में बस एक मुस्लिम मंत्री हैं- मुख़्तार अब्बास नक़वी.

कहा जा सकता है कि बीजेपी या उसके सहयोगी दलों के पास अगर मुस्लिम सांसद या चेहरे नहीं हैं तो उन्हें कहां से मंत्री बनाया जाए. लेकिन यह सच्चाई भी अपने-आप में बहुत तकलीफ़देह है. देश में 300 सीटें जीतने वाली पार्टी के पास किसी मुस्लिम चेहरे का न होना यह बताता है कि देश के एक हिस्से को उसने छोड़ रखा है. प्रधानमंत्री अक्सर अपने भाषणों में एक सौ तीस करोड़ से ज़्यादा भारतीयों का हवाला देते हैं, लेकिन क्या उन्हें एहसास नहीं है कि उनकी सरकार में 20 करोड़ का एक भारत अदृश्य है- वह भारत जो इस देश की 15 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी से बनता है?

विडंबना यह है कि केंद्र सरकार की विराट मंत्री परिषद में यह मुस्लिम नुमाइंदगी उस समय शून्य के बराबर है जब राष्ट्रीय राजनीति में हर एजेंडे को मुसलमानों से जोड़ा जा रहा है. इसी दौर में अयोध्या में मंदिर बन रहा है, बाबरी मस्जिद के लिए कहीं दूर जगह नियत कर दी गई है, तीन तलाक़ को लेकर क़ानून बन चुका है और जनसंख्या को लेकर नई नीति बन रही है जिसमें यह कहा जा रहा है कि सभी समुदायों में जनसंख्या बढ़ोतरी का अनुपात एक सा हो. साफ़ तौर पर यहां भी इशारा मुसलमानों की ओर है जो इस मिथक से प्रेरित है कि मुसलमान ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं. (यह एक फूहड़ वाक्य है, लेकिन उस मानसिकता की फूहड़ता दिखाने के लिए इसी इसी तरह लिखा जाना ज़रूरी है.)

क्या यह सच है कि मुसलमानों के यहां ज़्यादा बच्चे पैदा होते हैं? ये कब से होने लगे हैं? ज़्यादा नहीं, आधी सदी पुराने हिंदुस्तान को याद करें तो पाएंगे कि औसत हिंदू घरों में भी सात-आठ बच्चे पैदा होते थे. जाहिर है, ज़्यादा बच्चे पैदा होने का वास्ता धर्म से नहीं, पिछड़ेपन और ग़रीबी से है. इसका मज़ाक उड़ाने की जगह, इसका सांप्रदायिकीकरण करने की जगह इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी छह भाई-बहन रहे. लालू यादव के 11 बच्चे हुए जिनका अक्सर मज़ाक बनाया जाता रहा.

लालू यादव चूंकि पिछड़े हैं इसलिए जिस मुद्दे पर उनका मज़ाक बनाया जाता रहा, उसी मुद्दे पर मुसलमानों को निशाने पर लिया जाता रहा- जैसे वे बच्चे पैदा कर अपनी संख्या हिंदुओं से ज़्यादा कर लेने का कोई ख़्वाब पाले हुए हों. अगर ऐसा कोई ख़्वाब कहीं होगा तो वह भी पढ़े-लिखे मुस्लिम घरों में क्यों दिखाई नहीं पड़ता है? वहां अचानक एक-दो बच्चों वाला चलन ही क्यों चला आया है? क्या ये खाते-पीते लोग मुसलमान नहीं हैं?

जाहिर है, जनसंख्या विस्फोट का संकट धार्मिक पहचानों का नहीं, ग़रीबी और पिछड़ेपन का संकट है. अगर जनसंख्या के आंकड़े देखें तो आप पाएंगे कि धीरे-धीरे यह संकट भी अपने-आप कम हो रहा है. जनसंख्या बढ़ोतरी की रफ़्तार पहले से काफ़ी कम है और जिस समुदाय में बढ़ोतरी की यह रफ़्तार सबसे ज़्यादा घटी है, वह मुसलमान हैं. जाहिर है, जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर जो नया बिल लाया जा रहा है, वह एक तरह से बेमानी क़वायद है. अगले 15-20 साल में हम उम्मीद कर सकते हैं कि भारत की जनसंख्या स्थिर होने की तरफ़ बढ़ रही होगी.

मंत्रिमंडल विस्तार के क्रम में जनसंख्या नियंत्रण के मसले का इतने विस्तार में ज़िक्र करने की ज़रूरत क्यों है? यह बताने के लिए कि मंत्री परिषद में कोई नहीं है जो इस संवेदनशील मसले पर मुसलमानों का पक्ष रख सके. अगर मुसलमानों के भीतर इस बात की तकलीफ़ है कि उनको ठीक से समझा नहीं जा रहा तो केंद्र सरकार में ऐसे कितने मंत्री हैं जो उनका पक्ष रख सकते हैं? दुर्भाग्य से बस एक मंत्री है जिसकी सारी फ़िक्र अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए अपने-आप को ज़्यादा से ज़्यादा मुस्लिम मुद्दों की तकलीफ़ से अलग दिखाने की है.

यह सिर्फ़ इत्तिफ़ाक़ नहीं है कि जिस समय मंत्रिमंडल में मुस्लिम नुमाइंदगी शून्य के बराबर है, उसी समय सरकार ने नागरिकता संशोधन क़ानून के नाम पर मुसलमानों के भीतर एक अलगाव का एहसास पैदा करने वाला फ़ैसला किया है. पहली बार इस देश में ऐसा क़ानून बना है जिसमें बताया जा रहा है कि तीन देशों के अल्पसंख्यकों को भारत में नागरिकता मिल सकती है लेकिन वे मुसलमान नहीं हो सकते. पूरे देश में जब उसका विरोध हुआ तो ऐसे आंदोलनकारियों को दंगाई बता कर गिरफ़्तार किया जा रहा है.

27 पिछड़े नेताओं को मंत्री बनाने की पहल पर जो जानकार सरकार की पीठ थपथपाते थक नहीं रहे, वे इस विसंगति का ज़िक्र क्यों नहीं कर रहे? क्योंकि क्या यह वाकई मान लिया गया है कि बीजेपी मुसलमानों की पार्टी नहीं है इसलिए यह स्वाभाविक है कि वह मुसलमानों को उम्मीदवार या मंत्री न बनाए? या यह सिर्फ़ हिंदू मंत्रिमंडल है? इसमें एक सिख हरदीप सिंह पुरी दिखाई पड़ रहे हैं. किसी दूसरे धर्म के मंत्री की तत्काल याद नहीं आ रही. आदिवासी भी गिनती के हैं. इस हिंदू मंत्रिमंडल में मंडल के पक्ष को बहुत मज़बूती से पेश किया जा रहा है. लेकिन यह सच्चाई भुला दी जा रही है कि अब भी मंत्रिमंडल में बहुमत अगड़ों का ही है.  

दरअसल यह मंडल बनाम कमंडल का नया अध्याय है. नब्बे के दशक की अपनी सोशल इंजीनयरिंग में बीजेपी ने कई पिछड़े नेताओं को नेतृत्व देते हुए कमंडल में मंडल को समेटने की चालाकी की थी. इस बार मंडल में कमंडल को घुसाया जा रहा है. ऐसा साबित किया जा रहा है जैसे यह पिछड़ों की सरकार है. लेकिन क्या कोई पिछड़ों की सरकार मुसलमानों की अनदेखी करके बनाई जा सकती है? यह नैतिक और राजनैतिक दोनों स्तरों पर ग़लत है. इस ग़लती पर उंगली रखने वाले नहीं बचे है- यह बात बताती है कि एक बहुसांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में हमारी बौद्धिक चेतना और साहस दोनों घटे हैं.

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